तपस्वी मुनि वाल्मीकि अपन गुरु त्रिलोकज्ञ मुनिवर नारदजी सॅं श्रीराम चरित्र महिमा संक्षेप मे सुनि शिष्य सहित तमसा नदी के तट पर गेलाह ।
ओतए के कीचड़ सॅं रहित घाट देखि मुनि अपन समीप ठाढ़ शिष्य भरद्वाज सॅं कहलथिन्ह : देखू , एतए के घाट कतेक सुन्दर अछि । एहि मे कीचड़ नाम मात्र के नहि छै । एतए के जल ओहने स्वच्छ छै जेहेन सत्पुरुष के मन होइत अछि । तात ! एतहिं कलश राखि हमरा हमर वल्कल वस्त्र दीअ ।
हम तपसा के एहि उत्तम तीर्थ मे स्नान करब । महात्मा वाल्मीकि के आज्ञा पर नियम परायण शिष्य भरद्वाज गुरु केॅ वल्कल वस्त्र देलखिन । शिष्य के हाथ सॅं वल्कल वस्त्र लऽ ओ जितेन्द्रिय मुनि ओतए के विशाल वन के शोभा केॅ देखैत सभ दिश विचरण करए लगलाह ।
ओतए समीपहिं मे क्रौंच पक्षी के एक जोड़ा जे एक दोसर सॅं कहिओ अलग नहि होइत छल, आनन्दित भऽ विहार करैत छल। ओहि दुनु पक्षी के मधुर बोली सॅं भगवान् वाल्मीकि आह्लादित होइत सुरम्य वन के मनोहर सुन्दरता पर मन्त्रमुग्ध भऽ रहल छलाह ।
” मा निषाद प्रतिष्ठायां त्वमगम: शाश्वती: समा: ।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।। “