धराक ओ धरती जतए ऋषि-मुनि वेदक ऋचा सभ गबैत छलाह, जतए राजा जनक के सभामे विदुषी स्त्रीसभ ज्ञानक दीप जरबैत छलीह, आ जतए लोकक श्वाससँ आबि रहल परंपराक सुगंध आइयो जीवित अछि।
एहि पावन भूमि मिथिला मे जखन कार्तिक मासक शरद राति मे शीतल पवन बहय लगैत अछि, तऽ केवल ऋतु नहि बदलैत अछि बल्कि जीवनक धुरी सेहो घूमि जाइत अछि। एहि समयमे धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा आ भ्रातृ द्वितीया पंचपर्वक श्रृंखला मिथिला केॅ दीप के प्रकाश , हृदय के उमंग आ समाजिक संबंध के रंगमे रंगि दैत अछि। दीप- ज्योति प्रकाश मात्र नहि होइत अछि अपितु भावना, संस्कृति आ आत्मीयता के प्रकाश सेहो बनैत अछि।
एहि पर्वसभ के माध्यम सँ लोक जीवनमे नव ऊर्जा, नव आशा आ पारिवारिक प्रीति केॅ नव प्रकाश भेटैत अछि। एहि पाँच दिवसीय उत्सवमे मिथिला केवल दीप सँ नहि अपितु अपन संस्कृतिक आलोक सँ सेहो चमकि उठैत अछि।
कार्तिक मासक कृष्ण पक्षक त्रयोदशी तिथि केॅ पंचपर्वक पहिल पावनि धनतेरस के रूप मे हर्षोल्लासपूर्वक मनाओल जाइत अछि। एकरा आयु, आरोग्य आ समृद्धि के द्वार कहल जाइत छै। एहि दिन के मूल महत्व आयुर्वेदक देवता भगवान धन्वंतरि सँ जुड़ल अछि, जिनकर प्राकट्य समुद्र मंथनक समय अमृतक कलश लऽ केॅ भेल छल। ओ आयु, आरोग्य आ जीवन रक्षक चिकित्सा-विज्ञानक प्रत्यक्ष स्वरूप छथि।
मिथिला मे लोक विश्वास अछि जे एहि दिन धन्वंतरिक पूजन सँ आरोग्य प्राप्ति होइत अछि संगहि यमराजक दीपदान सँ अकाल मृत्यु टरैत छैक। विशेष रूप सँ मिथिला क्षेत्रक गृहिणी लोकनि अपन आँगन केँ गोबर सँ नीपि के पवित्र करैत छथि, ओहि पर धन्वंतरि यंत्र अंकित कएल जाइत अछि अथवा सुपमे अक्षत, दीप आ फल राखि विधिपूर्वक पूजन करैत छथि।
एहि अवसर पर यमदीपदानक विशेष परंपरा अछि—
घरक दक्षिण दिश दीप जरा यमराजक स्मरण करैत कहल जाइत अछि जे— हे यमराज ! एहि दीप के रोशनी सँ हमर कुल-परिवार सदा सुरक्षित रहय। ई विश्वास अछि जे एहि प्रकारक दीपदान सॅं यमराज प्रसन्न होइत छथि आ मृत्यु-पीड़ा सँ रक्षा करैत छथि।
धनतेरस पर बाजार मे चहल-पहल बढ़ि जाइत अछि। लोक धातुक जेना पीतल, कांस, चाँदी आदिक नव बर्तन, झाड़ू आ आयुर्वेदिक औषधि सभ कीनैत छथि। स्त्रीसभ नव बर्तन मे चाउर भरि केॅ कामना करैत छथि जे “हमर घर-आँगन मे अन्न, धन आ सुख-शांति बनल रहय।”
गाम-गाम मे मेल-जोल आ उत्सवक वातावरण बनि जाइत अछि। लोक एक-दोसरक संग शुभकामना साझा करैत छथि, बुझाइत अछि जे धनतेरस केवल खरीद-बिक्रीक अवसर नहि बल्कि स्वास्थ्य, आयुष्य आ समृद्धिक संग लोक-संस्कृतिक गौरवपूर्ण अभिव्यक्ति थीक ।
पंचपर्वके दोसर महत्त्वपूर्ण कड़ी छी – नरक चतुर्दशी, जेकरा काली चतुर्दशी आ छोटी दीपावली नाम सँ सेहो जानल जाइत अछि। ई पर्व दीपावली सँ एक दिन पूर्व कार्तिक मासक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी तिथि केँ मनाओल जाइत अछि। मैथिल परंपरा आ लोकविश्वास मे ई दिन शुद्धि, आत्म-उद्धार आ पाप के नाशक प्रतीक मानल जाइत अछि।
धार्मिक मान्यतानुसार, नरकासुर नामक एक अत्याचारी राक्षसक वध एहि दिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भेल छल। ओकरा कैद सॅं बहुतो जनसामान्य मुक्त भेल। एहि उपलक्ष्य मे लोक आनन्द मनौलन्हि आ दीप प्रज्वलित कएलनि। तहिया सँ ई दिन ‘नरक चतुर्दशी’ कहाबए लगल।
एहि दिन गाम-घरमे अभ्यंग स्नान (तेल लगा केॅ स्नान) के परंपरा अछि, जे शरीरक शुद्धि संग आत्मा केँ पापक प्रभाव सँ मुक्ति दैत अछि। विशेष रूपें उषा बेला मे स्नान करब, तेल लगा आ उबटन सँ देह मालिस कऽ स्नान करब शुभ मानल जाइत अछि। लोक विश्वास करैत छथि जे एहेन स्नान सँ नरक के पीड़ा सँ मुक्ति भेटैत अछि आ जीवन मे शुभता अबैत अछि।
एहि दिन मिथिला मे चौदह प्रकार के शाग खयबाक परंपरा छै, जकर उद्देश्य शारीरिक शुद्धता, रोग निवारण आ परंपरागत मान्यता अनुसार नकारात्मक ऊर्जा के नाश मानल जाइत अछि। चौदह शाक मे ओल, केउआ, बथुआ, सरिसव, करमी, नीम, भाङ्ग, शालिपत्री, सरहच्ची, पटुआ, सोवा, गुडीच, वनभट्टा आ अमरोरा अबैत अछि।
नरक चतुर्दशी केवल धार्मिक कर्मकाण्ड नहि अपितु ई आत्मा केँ आलोकित करबाक एक प्रेरणा दिन थीक। पापक अन्हार सँ सद्गुणक प्रकाश दिश यात्रा । एहि भाव केँ मैथिल लोकगीत, कथा-कविता मे खूब रंगल गेल अछि। “नरक चौदस के नहान, पाप कटए सब प्राण।” ई कहबी लोकमानस मे एहि दिनक महत्त्व केँ सहज भाव सँ बुझेबा मे मदद करैत अछि।
नरक चतुर्दशी नाम जतेक डरावना लगैत अछि वास्तव मे ओतबे प्रकाश भरल अवसर थीक । पाप सँ मुक्ति, आत्मशुद्धि आ सत्कर्मक मार्ग पर आगाँ बढ़बाक प्रेरणा देबएबाला ई पर्व जीवन मे एक नव अध्याय शुरु करबाक सुअवसर थीक। आइयो गामक चूल्हा पर तेल गरम होइत छै, बच्चा सब उबटन सँ चमकैत अछि आ लोक अपन आत्मा केँ आलोकित करबाक संकल्प लैत छथि ।
एहि पर्व शृंखला के तेसर दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्या तिथि केॅ श्रद्धा, परंपरा आ सामाजिक सौहार्दक अनुपम संगम दीपावली मनाओल जाइत अछि। एहि पावनि मे मुख्य रूप सँ माँ लक्ष्मी, भगवान गणेश, इन्द्र आ कुबेर के संयुक्त पूजा होइत अछि। जनमानस में ई दृढ़ विश्वास अछि जे दीपावलीक राति माँ लक्ष्मी लोकक घर में अबैत छथि, तेँ संध्या होइते लोक अपन घर-आँगन केॅ दीप सँ आलोकित करैत अछि।
दीपावली सँ पहिने लोक अपन घरक साफ-सफाई करैत अछि, जेकर धार्मिक आ वैज्ञानिक दुनू अर्थ अछि। ई विश्वास रहैत अछि जे स्वच्छता सँ लक्ष्मी जी प्रसन्न होइत छथि। दीपावलीक संध्या, माटिक लक्ष्मी-गणेश मूर्ति पूजा स्थल मे स्थापित कएल जाइत अछि।
गोबर आ पीठार सँ अरिपन बनाओल जाइत अछि, जे मिथिलाक सौंदर्यबोध आ कला-कौशलक प्रतीक छी। महिला सभ लक्ष्मी- पदचिह्न बनबैत छथि आ कलश पर चौमुख दीप बारि माँ लक्ष्मी के स्वागत करैत छथि । ई परंपरा मिथिलांचलक विशेषता थीक ।
पावनि पर मिथिला के परंपरागत व्यंजन बनाओल जाइत अछि । बच्चासभ दीप जरा केॅ आ फूलझड़ी पटाखा छोड़ि के आँगन केॅ चकमक बना दैत अछि। एहि रात्रि मे घर-घर मे दीप के रोशनी जगमगाइत रहैत अछि, जे अन्हार पर प्रकाशक विजय के प्रतीक बनैत अछि।
दीपावली केवल धार्मिक अनुष्ठान धरि सीमित नहि अछि। ई पावनि पारिवारिक आ सामाजिक संबंध मे नव ऊर्जा प्रदान करैत अछि। पड़ोसी के संग मिठाइ केर आदान-प्रदान, बुजुर्ग लोकनि सँ आशीर्वाद ग्रहण, भजन-कीर्तन, दीपोत्सव आ सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कएल जाइत अछि। एहि प्रकार दीपावली अन्हार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, आ अलगाव पर अपनत्वक विजय के उत्सव बनि जाइत अछि।
अतएव दीपावली मिथिला मे केवल एक धार्मिक पर्व नहि, बल्कि संस्कृति, परंपरा, सामाजिकता आ आत्मिक आलोकक उत्सव छी। ई दिवस मनुष्य के भीतरक अन्हार केँ दूर कऽ ओहि मे दिव्य प्रकाश भरबाक प्रेरणा दैत अछि।
पंचपर्वक चारिम दिन प्रकृति, परंपरा आ पशुधनक आराधना के पर्व गोवर्धन पूजा होइत अछि। कार्तिक मासक शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा तिथि केँ, दीपावलीक दोसर दिन एकर आयोजन होइत अछि।
एहि पर्व के मूल आत्मा भगवान श्रीकृष्णक ओहि ऐतिहासिक कथा सँ जुड़ल अछि, जाहि मे ओ इन्द्रक घमंड केँ चूर करैत गोवर्धन पर्वत केँ अपन कर-कमल सँ उठा गोकुलवासी लोकनि केॅ संकटकालीन वर्षा सँ रक्षा कयलथिन्ह। एहि कार्यद्वारा ओ न केवल लोक के रक्षण कयलाह बल्कि प्रकृतिक प्रति मानवीय कृतज्ञता आ श्रद्धा केर भाव सेहो जनसमाज मे स्थापित कयलाह ।
एहि दिन लोक गोबर सँ गोवर्धनक प्रतीक रूप बनबैत अछि। गोवर्धन पर्वत के स्वरूप मे बनल गोबरक शिखर पर फूल, अक्षत आ दीप सँ पूजा होइत अछि। गोधन (गाय-बड़द) केँ स्नान करा केॅ रंगबिरंगक रंग सॅं सजाओल जाइत अछि।
सींग आ खुर मे तेल, गर्दनि मे घंटी लागल गरदामी आ अन्य साज-सज्जा सॅं शृंगार कएल जाइत अछि। बड़द केॅ बकाइन के विशेष भोग लगैत अछि आ सभ गोधन गम्हड़ायल धान के कुट्टी एवं अन्य हरियर,कोमल स्वादिष्ट आहार पाबि संतुष्ट होइत अछि।
ई मिथिलांचल मे पशुपालनक महत्व आ पशुधन प्रति आदर के प्रतीक थीक। गृहिणी लोकनि पारंपरिक गीत जेना —”गोबर सँ बनलै गोवर्धन पर्वत,कन्हैया केर हाथ मे छाता हे” गबैत छथि। एहेन लोकगीत सभ मे भक्ति, परंपरा आ ग्रामीण जीवनक जीवंतता देखाइत अछि।
अन्नकूटक आयोजन सेहो एहि पर्वक एक प्रमुख पक्ष थीक। ५ सँ ७ प्रकारक व्यंजन अथवा ५६ भोग तैयार कयल जाइत अछि। एहि अवसर पर सामूहिक भोज होइत अछि जतय सौंसे गाम-समाज एक संग बैसि केॅ प्रसाद ग्रहण करैत छथि । ई सामूहिकता ग्रामीण जीवनक आत्मीयता, सहअस्तित्व आ भाईचारा केँ प्रगाढ़ करैत अछि।
भ्रातृ द्वितीया, जेकरा मिथिलांचल मे “भैया दूज” वा “भर द्वितीया” सेहो कहल जाइत अछि, दीपावलीक पञ्चपर्व मे अन्तिम आ विशेष महत्त्वक दिन थीक । ई पर्व भाइ-बहिनक पारस्परिक प्रेम, स्नेह आ उत्तरदायित्वक प्रतीक मानल जाइत अछि।
एहि दिन बहिन अपन भाइ के दुनु हाथ मे पीठार सिन्दुर लगा ओहि पर सिन्दुर, पान, सुपारी, मखान, दूबि, फूल आदि शुभ पदार्थ राखि दीर्घायु आ कुशलता लेल कामना करैत छथि । माथ पर तिलक लगा आशीष दैत अपन हाथ सॅं पकाओल भोजन करबैत छथि।
भ्रातृ द्वितीया कार्तिक मास के शुक्ल पक्षक द्वितीया तिथिकेँ मनाओल जाइत अछि। स्कन्द पुराण, नारद पुराण आ भविष्य पुराण मे एहि पर्वक उल्लेख अछि। एतय यमराज आ यमुनाक कथा प्रसिद्ध अछि — यमराज अपन बहिन यमुनाक आग्रह पर द्वितीया तिथि के हुनकर घर गेलाह, आ यमुनाक प्रेम आ सत्कार सँ प्रसन्न भऽ वचन देलखिन ” जे भाइ एहि दिन अपन बहिन के हाथ सॅं बनायल पाक स्नेहपूर्वक भोजन करत ओ दीर्घायु होयत।”
भातृ द्वितीया पर अनेक गीत, लोकगाथा आ मिथक प्रचलित अछि। भर द्वितीया केर अवसर पर गाओल जाएवाला पारंपरिक गीत बहिनक भावनात्मक जुड़ाव केँ उद्भाषित करैत अछि । एहेन गीतसभक पंक्ति मे बहिनक प्रतीक्षा, प्रेम आ स्नेहक कोमल भाव स्पष्ट रूपेँ झलकैत अछि। मैथिली लोककथा आ गीत मे बहिन अपन भाइ लेल वरदान माँगैत छथि — जे ओ सदिखन सुखी, निरोगी आ दीर्घजीवी रहथि।
भ्रातृ द्वितीया एक सामाजिक औपचारिकता मात्र नहि अपितु पारिवारिक एकता, स्नेह आ उत्तरदायित्वक नवप्रस्ताव थीक। मैथिल संस्कृति मे एहि पर्व केँ अत्यन्त पवित्र मानल जाइत अछि, जतय बहिन-भाइ केर सम्बन्ध केवल खूनक नाता सँ नहि बल्कि, आत्मीयता आ परस्पर समर्पणक भाव सँ बान्हल रहैत छैक ।
मिथिला क्षेत्रक पंचपर्व धनतेरस सँ लऽ केॅ भ्रातृ द्वितीया धरि केवल धार्मिक अनुष्ठान नहि अपितु लोकसंस्कृतिक सजीव अभिव्यक्ति छी। एहेन पावनिक शृंखला मे मानव मात्रक आस्था, प्रकृति-संवेदना, पारिवारिक स्नेह, सामाजिक संबंध, आ सांस्कृतिक चेतना के एकरूपता प्रकट होइत अछि।
एहि समस्त पर्व परंपराक गंध, मिथिलाक वर्तमान जीवन मे अरिपनक रेखा, गीतक स्वर, गोबरक पर्वत आ भाइ के भाल पर तिलक के रूप मे अहर्निश जीवंत अछि। एतए के संस्कृति इतिहास नहि अपितु जीवंत अनुभव थीक।